जीवनी/आत्मकथा >> एक कहानी यह भी एक कहानी यह भीमन्नू भंडारी
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यह आत्मसंस्मरण मन्नूजी की जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है...
एक कहानी यह भी
लेखन एक अनवरत यात्रा-जिसका न कोई अन्त है, न मंज़िल। बस, निरन्तर "चलते चले
जाना ही जिसकी अनिवार्यता है, शायद नियति भी। हर रचना एक पड़ाव, जिसमें यहाँ
तक पहुँचने के सुख-सन्तोष से ज़्यादा आगे जाने का उत्साह भरा रहता है। पर
कभी-कभी यह क्रम उलट भी जाता है। अपने रचे का सुख-सन्तोष और उससे मिलनेवाला
यश लेखक को एक ऐसी गहरी तृप्ति का बोध करा देता है, जिससे आगे जाने का यह
उत्साह लौट-लौटकर मुग्ध भाव से अपने रचे के इर्द-गिर्द ही चक्कर लगाने लगता
है। पिछले दस वर्षों में अपने मन की दस पंक्तियाँ भी न लिख पाने के पीछे कहीं
यही कारण तो नहीं ? नहीं, बहुत ईमानदारी से मन का कोना-कोना टटोलकर देख
लिया...आत्ममुग्ध तो क्या, मैं तो अपने लिखे को लेकर कभी आत्म-तुष्ट भी नहीं
हो पाई। भरपूर आत्म-तोष देनेवाला कुछ लिखा ही नहीं...न स्तर की दृष्टि से, न
परिमाण की दृष्टि से। तब ? क्या मेरे सरोकार और प्राथमिकताएँ बदल गईं ? लेकिन
प्राथमिकता के क्रम में लिखना मेरा पहला और प्रमुख सरोकार तो कभी रह ही नहीं
पाया। बेटी और घर (जिसकी पूरी-पूरी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर थी) के साथ नौकरी
(जो अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए अनिवार्य थी) के बीच में से ही
लिखने के लिए समय और सुविधा जुटानी पड़ती थी और मैंने जो कुछ भी लिखा, इन
सबके बीच ही लिखा, इनकी कीमत पर कभी नहीं लिखा। लेकिन पहले हर स्तर पर संकट
थे, कष्ट थे, समस्याएँ थीं, नसों को चटका देनेवाले आघात थे, पर उनके साथ
लगातार लिखना भी था...जो भी, जैसा भी। आज ये सारी समस्याएँ-संकट समाप्तप्राय
हैं पर लिखना तो बिलकुल ही समाप्त है। तो क्या संघर्षपूर्ण और समस्याग्रस्त
जीवन ही लिखने की अनिवार्य शर्त है ?
कभी-कभी सोचती हूँ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझमें लिखने के प्रति पहले जैसी
निष्ठा या लगाव नहीं रहा ! हो सकता है कि कारण यही हो; और है तो मुझे स्वीकार
करने में कोई संकोच भी नहीं। अच्छा है कि मेरे पास कोई ऐसा तर्क-कौशल या
लेखकीय हुनर नहीं है जिससे मैं लेखन में आए इस ठहराव को भटकाव न मानकर कुछ
सामान्य से कारण ढूँढ़ लेती और उस मानसिक यन्त्रणा और जानलेवा दंश से भी
मुक्ति पा लेती जो इस स्थिति की अनिवार्य परिणति होनी चाहिए। मेरे पास आज अगर
कुछ है तो हर दिन के साथ बढ़ती छटपटाहट और लगातार रिसते-टूटते आत्मविश्वास की
कचोट। आज मैं कितनी शिद्दत के साथ महसूस कर रही हूँ कि क़लम और शब्द के साथ
रिश्ता टूटते चले जाने की प्रक्रिया में कैसे ज़िन्दगी के साथ भी मेरा रिश्ता
टूटता चला गया-कैसे मैं सबसे कटी-छंटी अपने में ही सिमटती-सिकुड़ती चली गई।
लेकिन इतना सब होने के बावजूद लिखने की एक अव्यक्त-सी लालसा मन को बराबर
कचोटती रही है और एक दिन इसी कचोट की मार से मैं घर की सामान्य-सी सुविधाओं
में लिथड़ी, पर मन को निरन्तर कंगला और शरीर को रुग्ण बनाती, अपनी एक निहायत
ही यान्त्रिक ढर्रे में ढली बेजान-सी ज़िन्दगी को छोड़कर उज्जैन चली
आई-अकेली। एक प्रयोग यह भी सही।
लिखने का आधार बनाने के लिए ज़िन्दगी के टूटे-बिखरे और खोए सूत्रों को समेटने
की प्रक्रिया में जाने क्यों अपने माली की एक बात याद आई। बिना स्थान,
साधन-सुविधा और जानकारी के महज़ शौक़ के चलते मैंने अपने घर में थोड़े-से
गमले लगा रखे थे और मुझे उनसे बहुत लगाव था। एक दिन देखा कि बिना मौसम और
प्रत्यक्ष कारण के एक गमले की ढेर सारी पत्तियाँ झड़ गईं और दो-तीन दिन में
ही वह पौधा चन्द पत्तियों के साथ टहनियों का एक झुंड-भर रह गया- मात्र ह्ठ,
कुछ-कुछ मेरी ही तरह। माली ने देखा तो बड़ी बेरहमी से बची-खुची पत्तियों को
भी नोच फेंका। मेरे मुँह से निकले “अरे-अरे” को सुनकर बड़ी सहजता से उसने
अपनी भाषा में कहा, “इन पत्तियों को तो अब झड़ना ही होगा, इनसे मोह रखकर अब
काम नहीं चलेगा, क्योंकि ये अब जान नहीं देनेवाली इस पौधे को...अब तो जड़ को
देखना होगा,” और उसने गमले की मिट्टी उलट दी। गमले की निचली गहराई से निकला
जड़ों का गुच्छा...मिट्टी में लिथड़े, एक-दूसरे से उलझे अनेक रेशे। जो रेशे
सड़े-गले थे और जिन्होंने पौधे की जीवनी-शक्ति को कुन्द कर दिया था, उन्हें
बड़ी निर्ममता से उसने तोड़ फेंका। जो स्वस्थ थे, उन्हें साफ़ करके
सहेजा-सँवारा, इन्हीं से अब पौधा रस ग्रहण करेगा, फलेगा-फूलेगा-वह पूरी तरह
आश्वस्त था। तो क्या अपने को पुनर्जीवित करने के लिए मैं भी अपनी जड़ों की ओर
लौटूं, सारे सड़े-गले रेशों को उखाड़कर, उन रेशों को देखू-परखू,
सहेजूं-सँवारूँ, जिनकी जीवनी-शक्ति ही मुझे यहाँ तक लाई ? उन्हीं का एक ऐसा
अनवरत सिलसिला तलाश करूँ जो बेजान हो आए इस पौधे में भी शायद जान फूंक सके।
आगे बढ़ने के लिए पीछे मुड़कर देखना सहायक ही नहीं, कभी-कभी अनिवार्य भी नहीं
हो जाता ? यादों की, घटनाओं की, स्थितियों की न जाने कितनी छोटी-छोटी
पोटलियाँ ढुसी मिलेंगी जो ज़रा-सा स्पर्श पाते ही अपनी पूरी जीवन्तता के साथ
आ खड़ी होंगी। न जाने कितने पात्र अपने व्यक्तित्व के पूरे निखार के लिए
अनुकूल घटनाओं की, तो न जाने कितनी घटनाएँ अपने सारे अर्थ उजागर करने के लिए
अनुकूल पात्रों की माँग करतीं-आपको उकसाती, प्रेरित करतीं या फिर आज की
स्थितियों में नए सन्दर्भो की माँग करतीं आपके सामने आ खड़ी होंगी-एक चुनौती
बनकर। एक बार पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ इन सबसे जुड़कर देखा तो जाए।
कौन जाने, इन ठूठ जैसी टहनियों में भी कुछ अंकुरित होने की प्रक्रिया शुरू हो
जाए !
जन्मी तो मध्यप्रदेश के भानपुरा गाँव में थी, लेकिन मेरी यादों का सिलसिला
शुरू होता है अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के उस दो-मंजिला मकान से, जिसकी
ऊपरी मंज़िल में पिता का साम्राज्य था। वहाँ निहायत अव्यवस्थित ढंग से
फैली-बिखरी पुस्तकों-पत्रिकाओं और अख़बारों के बीच वे या तो कुछ पढ़ते रहते
थे या फिर 'डिक्टेशन' देते रहते थे। नीचे हम सब भाई-बहिनों के साथ रहती थीं
हमारी बेपढ़ी-लिखी व्यक्तित्वहीन माँ-सवेरे से शाम तक हम सबकी इच्छाओं और
पिताजी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर।
अजमेर से पहले पिताजी इन्दौर में थे, जहाँ उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, सम्मान
था, नाम था। कांग्रेस के साथ-साथ वे समाज-सुधार के कामों से भी जुड़े हुए थे।
शिक्षा का वे केवल उपदेश ही नहीं देते थे, बल्कि उन दिनों आठ-आठ, दस-दस
विद्यार्थियों को अपने घर रखकर पढ़ाया भी है, जिनमें से कई तो बाद में
ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर पहुँचे। ये उनकी खुशहाली के दिन थे और उन दिनों उनकी
दरियादिली के चर्चे भी कम नहीं थे। एक ओर वे बेहद कोमल और संवेदनशील व्यक्ति
थे तो दूसरी ओर बेहद क्रोधी और अहंवादी।
पर यह सब तो मैंने केवल सुना। देखा, तब तो इन गुणों के भग्नावशेषों को ढोते
पिता थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण वे इन्दौर से अजमेर आ गए थे, जहाँ
उन्होंने अपने अकेले के बलबूते और हौसले से अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोश
(विषयवार) के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया। यह अपनी तरह का पहला और
अकेला शब्दकोश था। इसने उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो बहुत दी, पर उतना अर्थ
नहीं जो उन्हें सम्पन्नता की पहले जैसी स्थिति में पहुँचा सकता। वैसे पाँच
बच्चों के साथ परिवार का पालन-पोषण, और चार की तो शादियाँ भी की, जो भी, जैसी
भी, फिर मेहमाननवाज़ी का तो पुराना स्तर ही बदस्तूर चालू था। लेकिन दोनों
हाथों से खुले हाथ ख़र्च करनेवाले व्यक्ति के लिए हाथ खींचकर चलने की
यातना...और शायद निरन्तर गिरती आर्थिक स्थिति ने ही उनके व्यक्तित्व के सारे
सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ना शुरू कर दिया था। सिकुड़ती आर्थिक स्थिति के
कारण और अधिक विस्फारित उनका अहं उन्हें इस बात तक की अनुमति नहीं देता था कि
वे कम-से-कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक विवशताओं का भागीदार बनाएँ। नवाबी
आदतें, अधूरी महत्त्वाकांक्षाएँ, हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकते
चले जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा माँ को कँपाती-थरथराती रहती थी। अपनों के
हाथों विश्वासघात की जाने कैसी गहरी चोटें होंगी वे, जिन्होंने आँख मूंदकर
सबका विश्वास करनेवाले पिता को बाद के दिनों में इतना शक्की बना दिया था कि
जब-तब हम लोग भी उसकी चपेट में आ जाते।
यों हम लोग जैन हैं पर पिताजी आर्यसमाजियों के बीच दीक्षित हुए थे, इसलिए हम
लोगों ने कभी जैनियों जैसे व्रत-उपवास नहीं किए, यहाँ तक कि संवत्सरी के दिन
भी नहीं। कभी हम लोग मन्दिर या मुनि-आचार्यों के व्याख्यान सुनने उपाश्रय
नहीं गए। साल में एक-दो बार संग-साथ मिलने पर माँ ज़रूर चली जाती थीं। और तो
और, एक बार पैदल यात्रा करते हुए रात काटने के लिए पाँच-सात साध्वियों का
पड़ाव हमारे यहाँ पड़ा। माँ बेहद उल्लसित। कोई साठ-सत्तर भक्तों से सारा आँगन
भर गया-बस, पिताजी ऊपर से नहीं उतरे और मैं अपने कमरे से नहीं निकली। बार-बार
के आग्रह पर मैं ही पिताजी को बुलाने के लिए ऊपर गई पर उनका दोटूक जवाब,
“अरे, उन बेपढ़ी-लिखी साध्वियों के पास जाकर क्या करूँगा मैं।” वे नहीं आए तो
तबीयत की आड़ लेकर मुझे ही उनके नकार के नुकीले कोनों को मुलायम बनाना पड़ा।
जैन दर्शन पर उनकी अच्छी पकड़ थी और उसका भरपूर बोध भी था उन्हें। मैं ज़रूर
जाकर बैठी, पर अपनी नज़र में उनके आडम्बरों पर इतनी बहस की कि वहाँ एकत्रित
लोग भौंचक होकर देखते ही रह गए। मारवाड़ी परिवार...लड़की की जात (नीची नज़र
और बन्द ज़बान का ठप्पा जिस पर जन्म के साथ ही चस्पा कर दिया जाता था) और ये
तेवर...ये हौसला ! मर्दो के बीच बैठकर साध्वियों से बहस ! उन्हें क्या पता कि
बहस करने की फ़ितरत तो घुट्टी में मिली थी हमें।
आर्यसमाजियों वाले हवन-यज्ञ और मन्त्रोच्चार भी कभी नहीं हुए हमारे यहाँ।
पिताजी ने उनका समाज-सुधारवाला पक्ष ही अपनाया था। आज से क़रीब अड़सठ साल
पहले बिना पूँघट-पर्दे के की गई बहिन की शादी काफ़ी क्रान्तिकारी क़दम था।
लड़कियों को लड़कों की तरह पढ़ाना...बाल-विवाह और अन्य सामाजिक कुरीतियों का
विरोध...आडम्बरों और ढकोसलों की छुट्टी, बचपन से यही सब देखा हमने। याद नहीं
घर में कोई धार्मिक अनुष्ठान देखा हो कभी। जैनी होने के बावजूद पड़ोसियों की
देखादेखी हम लोग जन्माष्टमी की झाँकी ज़रूर सजाते थे, पर उसमें धर्म से
ज़्यादा सजाने का शौक़ प्रमुख रहता था। त्यौहारों में केवल दीवाली मनाते थे।
हाँ, उस दिन ज़रूर पूजा की थाली सजाई जाती थी और पिताजी माँ के बताए-बताए
लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों पर रोली, चावल, मिठाई, पानी, फूल आदि डालकर हाथ
जोड़ते और पाँच मिनट में पूजा से निवृत्त हो लेते। उनका असली त्यौहार तो उस
दिन होता, जिस दिन उनके कोश का कोई नया भाग छपकर आता...या फिर कोई बहुत बड़ा
‘ऑर्डर' आता। उस दिन वे उतने ही कोमल, वत्सल और दरियादिल हो जाते थे। पिता,
वात्सल्य से भरे पिता। एक ही आदमी के कितने-कितने रूप होते हैं, यह मैंने तभी
जाना थ।
यह पितृ-गाथा मैं इसलिए नहीं गा रही कि मुझे उनका गौरव-गान करना है, बल्कि
मैं तो यह देखना चाहती हूँ कि उनके व्यक्तित्व की कौन-सी खूबी और ख़ामियाँ
मेरे व्यक्तित्व के ताने-बाने में गुंथी हुई हैं या कि अनजाने-अनचाहे किए
उनके व्यवहार ने मेरे भीतर किन ग्रन्थियों को जन्म दे दिया। मैं काली हूँ,
बचपन में दुबली और मरियल भी थी। गोरा रंग पिताजी की कमज़ोरी थी सो बचपन में
मुझसे दो साल बड़ी, खूब गोरी, स्वस्थ और हँसमुख बहिन सुशीला से हर बात में
तुलना और फिर उसकी प्रशंसा ने ही क्या मेरे भीतर ऐसे गहरे हीनभाव की ग्रन्थि
पैदा नहीं कर दी कि नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बावजूद आज तक मैं उससे
उबर नहीं पाई ? आज भी परिचय करवाते समय जब कोई तरह-तरह के विशेषण लगाकर मेरी
लेखकीय उपलब्धियों का जिक्र करने लगता है तो मैं संकोच से सिमट ही नहीं जाती
बल्कि गड़ने-गड़ने को हो आती हूँ। शायद अचेतन की किसी पर्त के नीचे दबी इसी
हीनभावना के चलते ही मैं अपनी किसी भी उपलब्धि पर भरोसा नहीं कर पाती...सब
कुछ मुझे तुक्का ही लगता है। पिताजी के जिस शक्की स्वभाव पर मैं कभी
भन्ना-भन्ना जाती थी, आज एकाएक अपने खंडित विश्वासों की व्यथा के नीचे मुझे
उनके शक्की स्वभाव की झलक ही दिखाई देती है...बहुत 'अपनों' के हाथों
विश्वासघात की गहरी व्यथा से उपजा शक। होश सँभालने के बाद से ही जिन पिताजी
से किसी-न-किसी बात पर हमेशा मेरी टक्कर चलती रही, वे तो न जाने कितने रूपों
में मुझमें हैं...कहीं कुंठाओं के रूप में, कहीं प्रतिक्रिया के रूप में, तो
कहीं प्रतिच्छाया के रूप में। केवल बाहरी भिन्नता के आधार पर अपनी परम्पराओं
और पीढ़ियों को नकारनेवालों को क्या सचमुच इस बात का बिलकुल अहसास नहीं होता
कि उनका आसन्न अतीत किस क़दर उनके भीतर जड़ जमाए बैठा रहता है ! समय का
प्रवाह भले ही हमें विपरीत दिशाओं में बहाकर ले जाए...स्थितियों का दबाव भले
ही हमारा रूप बदल दे, हमें पूरी तरह उससे मुक्त तो नहीं कर सकता !
पिता का चरित्र अपनी सारी गरिमा, सारी करुणा और सारे अन्तर्विरोधों के साथ
मेरे मन में ज्यों-का-त्यों अंकित है-बार-बार मुझे लिखने के लिए प्रेरित भी
करता है, लेकिन कभी साहस नहीं हुआ कि उन पर क़लम चलाऊँ। जानती हूँ, मैं उनके
बहुआयामी व्यक्तित्व के साथ न्याय नहीं कर पाऊँगी...कुछ अपनी सीमा के कारण तो
कुछ अपने पूर्वग्रहों के कारण !
पिता के ठीक विपरीत थी हमारी बेपढ़ी-लिखी माँ। धरती से कुछ ज़्यादा ही धैर्य
और सहनशक्ति थी शायद उनमें। पिताजी की हर ज़्यादती को अपना प्राप्य और बच्चों
की हर उचित-अनुचित फ़रमायश और ज़िद को अपना फ़र्ज़ समझकर बड़े ही सहज भाव से
स्वीकार करती थीं वे। उन्होंने ज़िन्दगी भर अपने लिए कुछ माँगा नहीं, चाहा
नहीं...केवल दिया ही दिया। हम भाई-बहिनों का सारा लगाव (शायद सहानुभूति से
उपजा) माँ के साथ था, लेकिन निहायत असहाय मजबूरी में लिपटा उनका यह त्याग कभी
मेरा आदर्श नहीं बन सका...न उनका त्याग, न उनकी सहिष्णुता। खैर, जो भी हो, अब
यह पैतृक पुराण यहीं समाप्त कर अपने पर लौटती हूँ।
पाँच भाई-बहिनों में सबसे छोटी मैं। सबसे बड़ी बहिन की शादी के समय मैं शायद
सात साल की थी और उसकी एक धुंधली-सी याद ही मेरे मन में है, लेकिन अपने से दो
साल बड़ी बहिन सुशीला और मैंने घर के बड़े से आँगन में बचपन के सारे खेल
खेले-सतोलिया, लँगड़ी-टाँग, पकड़म-पकड़ाई, काली-टीलो-तो कमरों में
गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह भी रचाए पास-पड़ोस की सहेलियों के साथ। यों खेलने
को हमने भाइयों के साथ गिल्ली-डंडा भी खेला और पतंग उड़ाने, काँच पीसकर माँजा
सूतने का काम भी किया, लेकिन उनकी गतिविधियों का दायरा घर के बाहर ही अधिक
रहता था और हमारी सीमा थी घर। हाँ, इतना ज़रूर था कि उस ज़माने में घर की ये
दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थीं, बल्कि पूरे मोहल्ले तक फैली रहती
थीं, इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबन्दी नहीं थी, बल्कि
कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे। आज तो मुझे बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस
होता है कि अपनी ज़िन्दगी खुद जीने के इस आधुनिक दबाव ने महानगरों के फ्लैट
में रहनेवालों को हमारे इस परम्परागत ‘पड़ोस-कल्चर' से विच्छिन्न करके हमें
कितना संकुचित, असहाय और असुरक्षित बना दिया है। मेरी कम-से-कम एक दर्जन
आरम्भिक कहानियों के पात्र इसी मोहल्ले के हैं, जहाँ मैंने अपनी किशोरावस्था
गुज़ार अपनी युवावस्था का आरम्भ किया था। एक-दो को छोड़कर उनमें से कोई भी
पात्र मेरे परिवार का नहीं है। बस, इनको देखते-सुनते, इनके बीच ही मैं बड़ी
हुई थी, लेकिन इनकी छाप मेरे मन पर कितनी गहरी थी, इस बात का अहसास तो मुझे
कहानियाँ लिखते समय हुआ। इतने वर्षों के अन्तराल ने भी उनकी भाव-भंगिमा,
भाषा, किसी को भी धुंधला नहीं किया था
और बिना किसी विशेष प्रयास के बड़े सहज भाव से वे उतरते चले गए थे। उसी समय
के दा साहब अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पाते
ही महाभोज में इतने वर्षों बाद कैसे एकाएक जीवित हो उठे, यह मेरे अपने लिए भी
आश्चर्य का विषय था...एक सुखद आश्चर्य का।
उस ज़माने में आज की तरह मनोरंजन के कोई साधन तो थे नहीं...महीने-दो महीने
में भाइयों के साथ सिनेमा जाने की अनुमति मिलती तो उत्सव जैसा लगता था। दो
दिन पहले से उत्सुकता-भरी प्रतीक्षा और दो दिन बाद तक देखे हुए का 'थ्रिल'।
लड़कियों के अकेले इधर-उधर जाने और घूमने-फिरने का चलन तो था नहीं, सो स्कूल
और खेल से बचे समय में हम किताबें पढ़ते थे-कहानी-उपन्यास। यों पिताजी का
अपना एक अच्छा-ख़ासा निजी पुस्तकालय था, पर कथा-साहित्य से शून्य। हाँ,
शरतचन्द्र की अनेक और प्रेमचन्द की कुछ किताबें उसमें ज़रूर प्रवेश पा गई थीं
पर पड़ोस में प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता जीतमलजी लूणिया रहते थे, जो प्रेस के
साथ-साथ पुस्तकें बेचने का काम भी करते थे। कवर चढ़ाकर, बड़ी एहतियात से
पढ़ने की शर्त पर उनसे पुस्तकें मिल जाया करती थीं, सो उन्हीं से चिपके रहते
थे। लेखक की तब कोई अहमियत नहीं थी, न चुनाव करके पढ़ने की तमीज़। जो भी
किताब हाथ में आ जाती, पढ़ डालती, पर अच्छी वे ही लगती थीं जो या तो किसी
सामाजिक समस्या पर केन्द्रित होती थीं या फिर किसी क्रान्तिकारी के जीवन पर।
लेखक के रूप में यदि किसी से पहचान बनी थी तो केवल शरत और प्रेमचन्द से। छठी
क्लास से लेकर इन्टर तक हर साल गर्मी की छुट्टियों में धन्यकुमार जैन द्वारा
अनूदित शरत-साहित्य के जितने भी भाग मिलते, उन्हें पढ़ने का सिलसिला बराबर
चलता रहा और आज भी याद है कि हर साल मैंने पढ़ी हुई उन किताबों को उतना ही
डूबकर पढ़ा था। उसके कई बरसों बाद जब आवारा मसीहा पढ़ा तो एकाएक ही इस जीवनी
के सन्दर्भ में फिर से सारा शरत-साहित्य पढ़ने का मन हुआ...काफ़ी कुछ पढ़ा भी
और मैं खुद हैरत में थी कि समय के साथ-साथ बदली हुई रुचियाँ, सोद्देश्यता के
बोझ से बोझिल हो आई संवेदना और तर्क से तीखी हो आई मानसिकता के बावजूद उनकी
कई रचनाओं ने मुझे उसी तरह बाँधा, अपने में डुबोया। अब कोई चाहे तो मेरे इस
बाँधने-डुबाने को औरताना भावुकता के ख़ाने में डालकर ख़ारिज कर सकता है।
उस समय तक हमारे परिवार में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य योग्यता थी-उम्र
में सोलह वर्ष और शिक्षा में मैट्रिक। सन् 1944 में सुशीला ने यह योग्यता
प्राप्त की और शादी करके कलकत्ता चली गई। दोनों बड़े भाई भी आगे की पढ़ाई के
लिए बाहर चले गए। इन लोगों की छत्रछाया के हटते ही पहली बार मुझे नए सिरे से
अपने वजूद का अहसास हुआ। पिताजी का ध्यान भी पहली बार मुझ पर केन्द्रित हुआ।
लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुघड़ गृहिणी और कुशल
पाक-शास्त्री बनाने के नुस्खे रटाए जाते थे, पिताजी का आग्रह रहता था कि मैं
रसोई से दूर ही रहूँ। रसोई को वे भटियारखाना कहते थे और उनके हिसाब से वहाँ
रहना अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्टी में झोंकना था। घर में आए दिन विभिन्न
राजनीतिक पार्टियों के जमावड़े होते थे, जिसमें कांग्रेस, प्रजा सोशलिस्ट
पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, आर.एस.एस. के लोग आते थे और जमकर बहसें होती थीं।
बहस करना पिताजी का प्रिय शग़ल था। चाय-पानी या नाश्ता देने जाती तो पिताजी
मुझे भी वहीं बैठने को कहते। वे चाहते थे कि मैं भी वहाँ बैठू, सुनूँ और
जानूँ कि देश में चारों ओर क्या कुछ हो रहा है। देश में हो भी तो कितना कुछ
रहा था। '42 के आन्दोलन के बाद से तो सारा देश जैसे खौल रहा था। लेकिन
विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की नीतियाँ, उनके आपसी विरोध या मतभेदों की तो
मुझे दूर-दूर तक कोई समझ नहीं थी। हाँ, क्रान्तिकारियों और देशभक्त शहीदों के
रोमानी आकर्षण, उनकी कुर्बानियों से ज़रूर मन आक्रान्त रहता था।
सो दसवीं कक्षा तक आलम यह था कि बिना किसी ख़ास समझ के घर में होनेवाली बहसें
सुनती थी और बिना चुनाव किए, बिना लेखक की अहमियत से परिचित हुए किताबें
पढ़ती थी। लेकिन सन् 45 में जैसे ही दसवीं पास करके मैं 'फ़र्स्ट इयर' में
आई, हिन्दी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से परिचय हुआ। सावित्री गर्ल्स
हाईस्कूल...जहाँ मैंने ककहरा सीखा, एक साल पहले ही कॉलेज बना था और वे इसी
साल नियुक्त हुई थीं। उन्होंने बाक़ायदा साहित्य की दुनिया में प्रवेश
करवाया। मात्र पढ़ने को, चुनाव करके पढ़ने में बदला-खुद चुन-चुनकर किताबें
दी...पढ़ी हुई किताबों पर बहसें की तो दो साल बीतते न बीतते साहित्य की
दुनिया शरत-प्रेमचन्द से बढ़कर जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा तक
फैल गई और फिर तो फैलती ही चली गई। उस समय जैनेन्द्र जी की छोटे-छोटे सरल-सहज
वाक्योंवाली शैली ने बहुत आकृष्ट किया था। सुनीता (उपन्यास) बहुत अच्छा लगा
था। अज्ञेय जी का उपन्यास शेखर : एक जीवनी पढ़ा ज़रूर, पर उस समय वह मेरी समझ
के सीमित दायरे में समा नहीं पाया था। कुछ सालों के बाद नदी के द्वीप पढ़ा तो
उसने मन को इस क़दर बाँधा कि उसकी झोंक में शेखर को फिर से पढ़ गई...इस बार
कुछ समझ के साथ। यह शायद मूल्यों के मंथन का युग था...पाप-पुण्य,
नैतिक-अनैतिक, सही-ग़लत की बनी-बनाई धारणाओं के आगे प्रश्नचिह्न ही नहीं लग
रहे थे, उन्हें ध्वस्त भी किया जा रहा था। इसी सन्दर्भ में जैनेन्द्र का
त्यागपत्र, भगवती बाबू का चित्रलेखा पढ़ा और शीला अग्रवाल के साथ लम्बी-लम्बी
बहसें करते हुए उस उम्र में जितना समझ सकती थी, समझा।
लेकिन मेरे प्रिय लेखक तब यशपाल ही थे। हो सकता है कि रचनाओं से अधिक उनका
क्रान्तिकारी जीवन इसके पीछे रहा हो, क्योंकि वह उम्र भी ऐसी ही थी और देश का
माहौल भी। क्रान्ति की कैसी-कैसी रोमानी भावनाएँ आक्रान्त किए रहती थीं उन
दिनों ! अपने हाथ-ख़र्च के पैसों से जो पहली दो पुस्तकें मैंने खरीदी थीं, वे
दादा कॉमरेड और पार्टी कॉमरेड ही थीं। उन्हें दो-तीन बार पढ़ा था और लम्बे
समय तक उन पात्रों और स्थितियों की ललक-भरी प्रतीक्षा बनी रही थी जो मुझे शैल
या गीता बनने का अवसर देतीं। शायद यह उम्र का ही असर था कि नायिकाओं के साथ
जीने की जगह नायिका बनकर जीना ज़्यादा अच्छा लगता था। आज भी मुझे अच्छी तरह
याद है कि लाल-लाल आँखें, बड़ी-बड़ी मूंछे और लढे की पठानी सलवार पहननेवाला
मोहल्ले का इकलौता गुंडा मिठू कैसे मुझे गीता बनने के लिए उकसाया करता था।
लेकिन बात करना तो दूर, सामने पड़ जाने पर ही पसीना छूटने लगता था। तब रात
में लेटे-लेटे मैं गीता बनी उससे बातें करती...फिर देखती कि कैसे मेरे
विश्वास और स्नेह ने गुंडई झलकानेवाली उसकी आँखों की लाली कम कर दी है...वह
बदल रहा है। उसके साथ के सारे संवाद भी मन में उभरते, लेकिन दूसरे ही दिन
बाहर निकलते समय कहीं उसकी झलक भी दिख जाती तो रातवाली गीता बिस्तर में ही
छूट जाती और मन्नू भंडारी डरती-काँपती गली में निकलती।
शीला अग्रवाल ने साहित्य का दायरा ही नहीं बढ़ाया था, बल्कि घर की चहारदीवारी
के बीच बैठकर देश की स्थितियों को जानने-समझने का जो सिलसिला पिताजी ने शुरू
किया था, उन्होंने वहाँ से खींचकर उसे भी स्थितियों की सक्रिय भागीदारी में
बदल दिया। सन् 46-47 के वे दिन...वे स्थितियाँ, उनमें वैसे भी घर में बैठे
रहना सम्भव था भला ? प्रभात-फेरियाँ, हड़तालें, जुलूस, भाषण हर शहर का चरित्र
था और पूरे दमख़म और जोश-खरोश के साथ इन सबसे जुड़ना हर युवा का उन्माद। मैं
भी यवा थी और शीला अग्रवाल की जोशीली बातों ने रगों में बहते खुन को लावे में
बदल दिया था। स्थिति यह हुई कि एक बवंडर शहर में मचा हुआ था और एक घर में।
पिताजी की आज़ादी की सीमा यहीं तक थी कि उनकी उपस्थिति में घर में आए लोगों
के बीच उठू-बैलूं, जानूँ-सम। हाथ उठा-उठाकर नारे लगाती, हड़तालें करवाती,
लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद
बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था तो किसी की दी हुई आज़ादी के दायरे
में चलना मेरे लिए। जब रगों में लहू की जगह लावा बहता हो तो सारे निषेध, सारी
वर्जनाएँ और सारा भय कैसे ध्वस्त हो जाता है, यह तभी जाना और अपने क्रोध से
सबको थरथरा देनेवाले पिताजी से टक्कर लेने का जो सिलसिला तब शुरू हुआ था,
राजेन्द्र से शादी की, तब तक वह चलता ही रहा।
यश-कामना, बल्कि कहूँ कि यश-लिप्सा, पिताजी की सबसे बड़ी दुर्बलता थी और उनके
जीवन की धुरी था यह सिद्धान्त कि व्यक्ति को कुछ विशिष्ट बनकर जीना
चाहिए...कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो, सम्मान हो,
प्रतिष्ठा हो, वर्चस्व हो। इसके चलते ही मैं दो-एक बार उनके कोप से बच गई थी।
एक बार कॉलेज से प्रिंसिपल का पत्र आया कि पिताजी आकर मिलें और बताएँ कि मेरी
गतिविधियों के कारण मेरे ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए ?
पत्र पढ़ते ही पिताजी आग-बबूला ! “यह लड़की मुझे कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं
रखेगी...पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ेगा वहाँ जाकर ! चार बच्चे पहले भी
पढ़े, किसी ने ये दिन नहीं दिखाया।” गुस्से से भन्नाते हुए ही वे गए थे।
लौटकर क्या कहर बरपा होगा, इसका अनुमान था, सो मैं पड़ोस की एक मित्र के यहाँ
जाकर बैठ गई। माँ से कह दिया कि लौटकर बहुत कुछ गुबार निकल जाए, तब बुलाना।
लेकिन जब माँ ने आकर कहा कि वे तो खुश ही हैं, चली चल,
तो विश्वास नहीं हुआ। गई तो सही, लेकिन डरते-डरते। “सारे कॉलेज की लड़कियों
पर इतना रौब है तेरा...सारा कॉलेज तुम तीन लड़कियों के इशारे पर चल रहा है ?
प्रिंसिपल बहुत परेशान थीं और बार-बार आग्रह कर रही थीं कि मैं तुझे घर बिठा
लूँ, क्योंकि वे लोग किसी तरह डरा-धमकाकर, डाँट-डपटकर लड़कियों को क्लासों
में भेजते हैं और अगर तुम लोग एक इशारा कर दो कि क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ तो
सारी लड़कियाँ निकलकर मैदान में जमा होकर नारे लगाने लगती हैं। तुम लोगों के
मारे कॉलेज चलाना मुश्किल हो गया है उन लोगों के लिए।” कहाँ तो जाते समय
पिताजी मुँह दिखाने से घबरा रहे थे, और कहाँ बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो
आज पूरे देश की पुकार है...इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है भला ? बेहद गद्गद
स्वर में पिताजी यह सब सुनाते रहे और मैं अवाक्। मुझे न अपनी आँखों पर
विश्वास हो रहा था, न अपने कानों पर। पर यह हक़ीक़त थी।
एक घटना और। आज़ाद हिन्द फ़ौज के मुक़दमे का सिलसिला था। सभी कॉलेजों,
स्कूलों, दुकानों के लिए हड़ताल का आह्वान था। जो-जो नहीं कर रहे थे, छात्रों
का एक बहुत बड़ा समूह, जिसमें हम लोग भी थे वहाँ जा-जाकर करवा रहे थे। शाम को
अजमेर का पूरा विद्यार्थी-वर्ग चौपड़ (मुख्य बाज़ार का चौराहा) पर इकट्ठा हुआ
और फिर हुई भाषणबाज़ी। इस बीच पिताजी के एक निहायत दकियानूसी मित्र ने घर आकर
अच्छी तरह पिताजी की लू उतारी-“अरे उस मन्नू की तो मत मारी गई है भंडारी जी,
पर आपको क्या हुआ ? ठीक है, आपने लड़कियों को आज़ादी दी, पर देखते आप, जाने
कैसे-कैसे उल्टे-सीधे लड़कों के साथ हड़तालें करवाती, हुड़दंग मचाती फिर रही
है वह। हमारे-आपके घरों की लड़कियों को शोभा देता है यह सब ? कोई
मान-मर्यादा, इज़्ज़त-आबरू का ख़याल भी रह गया है आपको या नहीं ?"
वे तो आग लगाकर चले गए और पिताजी सारे दिन भभकते रहे, “बस, अब यही रह गया है
कि लोग घर आकर थू-थू करके चले जाएँ। बन्द करो अब इस मन्नू का घर से बाहर
निकलना।"
इस सबसे बेख़बर मैं रात होने पर घर लौटी तो पिताजी के एक बेहद अन्तरंग और
अभिन्न मित्र ही नहीं, अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित डॉ. अम्बालालजी
बैठे थे। मुझे देखते ही उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया, “आओ, आओ
मन्नू। मैं तो चौपड़ पर तुम्हारा भाषण सुनते ही सीधा भंडारी जी को बधाई देने
चला आया। आय एम रिअली प्राउड ऑफ़ यू...क्या तुम घर में घुसे रहते हो भंडारी
जी...घर से निकला भी करो। यू हैव मिस्ड समथिंग,” और वे धुआँधार तारीफ़ करने
लगे-वे बोलते जा रहे थे और पिताजी के चेहरे का सन्तोष धीरे-धीरे गर्व में
बदलता जा रहा था। भीतर जाने पर माँ ने दोपहर के गुस्सेवाली बात बताई तो मैंने
राहत की साँस ली।
आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो इतना तो समझ में आता ही है कि क्या तो उस समय
मेरी उम्र थी और क्या मेरा भाषण रहा होगा ! यह तो डॉक्टर साहब का स्नेह था जो
उनके मुँह से प्रशंसा बनकर बह रहा था या यह भी हो सकता है कि आज से क़रीब साठ
साल पहले अजमेर शहर में चारों ओर से उमड़ती भीड़ के बीच एक लड़की का बिना
किसी संकोच और झिझक के यों धुआँधार बोलते चले जाना ही इसके मूल में रहा हो।
पर पिताजी ! कितनी तरह के अन्तर्विरोधों के बीच जीते थे वे ! एक ओर 'विशिष्ट'
बनने और बनाने की प्रबल लालसा तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक छवि के प्रति भी उतनी
ही सजगता। पर क्या यह सम्भव है ? क्या पिताजी को इस बात का बिलकुल भी अहसास
नहीं था कि इन दोनों का तो रास्ता ही टकराहट का है ?
सन् '47 के मई महीने में शीला अग्रवाल को कॉलेजवालों ने नोटिस थमा
दिया-लड़कियों को भड़काने और कॉलेज का अनुशासन बिगाड़ने के आरोप में। इस बात
को लेकर हुड़दंग न मचे, इसलिए जुलाई में थर्ड इयर की क्लासेज़ बन्द करके हम
दो-तीन छात्राओं का प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया।
हुड़दंग तो बाहर रहकर भी इतना मचाया कि अन्ततः दिल्ली से डायरेक्टर ऑफ़
एजुकेशन मिस्टर सेठी (यही नाम था शायद) को आना पड़ा। उनके सामने हम लोगों ने
और कॉलेजवालों ने अपना-अपना पक्ष रखा। दो दिन तक बहस चलती रही। हम उनके हर
तर्क को केवल काटते ही नहीं बल्कि बिलकुल निराधार सिद्ध कर देते। पर हमारे एक
तर्क ने-कि यदि थर्ड इयर बन्द करना ही था तो इसकी सूचना हमें मई तक मिल जानी
चाहिए थी, जुलाई में जब हम एडमिशन लेने गए तब यह सूचना देना कहाँ तक
तर्क-संगत है...जायज है ?-सारी बात को हमारे
पक्ष में कर दिया। मजबूरन कॉलेजवालों को थर्ड इयर खोलना पड़ा। जीत की यह
खुशी...पर सामने खड़ी, चिरप्रतीक्षित एक बहुत-बहुत बड़ी खुशी के सामने यह
खुशी बिला ही गई।
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